शिक्षा की परिभाषा (Definition of education) दीजिए।

एक अध्यापक को शिक्षा दर्शन अवश्य पढ़ना चाहिए। क्यों ?

शिक्षा की परिभाषा

शिक्षा की परिभाषा दो दृष्टिकोणों से दी जाती है।

1. भारतीय दृष्टिकोण में विद्या शिक्षा व ज्ञान तीनों को समान अर्थ में लिया गया है |

वेदान्त दार्शनिक शंकराचार्य के अनुसार, “शिक्षा स्वयं को जानना है।”

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, “शिक्षा मनुष्य में निहित देवीपूर्णता का प्रत्यक्षीकरण है।”

अरविन्द के अनुसार, “शिक्षा का कार्य आत्मा का जो कुछ उसमें है, विकसित करने में सहायता देना है।”

महात्मा गाँधी के अनुसार, “शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक तथा मनुष्य के शरीर, तथा आत्मा में सर्वोत्तम तत्त्वों को प्राप्त करना है।”

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार, “शिक्षा का अर्थ मस्तिष्क को इस योग्य बनाना है कि सत्य की खोज कर सकें और उस तथ्य को अपना बनाते हुए उसको व्यक्त कर दें।”

विकास की प्रक्रिया माना है । सुकरात के अनुसार, “शिक्षा का अर्थ प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में अदृश्य रूप से विद्यमान संसार के सर्वमान्य विचारों को प्रकाश में लाना है।”

बाल विकास की संकल्पना (Concept of Child Development)

2. पाश्चात्य दृष्टिकोण – पाश्चात्य दार्शनिकों ने शिक्षा को

फ्रॉबेल के अनुसार, “शिक्षा वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बालक की जन्मजात शक्तियाँ बाहर प्रकट होती हैं।”

डॉ० मारिया मॉण्टेसरी के अनुसार, ‘बालक के जीवन के स्वाभाविक विकास में दी जानेवाली सक्रिय सहायता को ही शिक्षा समझा जाना चाहिए।”

अरस्तु के अनुसार, “स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का निर्माण ही शिक्षा है।” हरबर्ट स्पेन्सर के अनुसार, “शिक्षा का अर्थ अन्त:शक्तियों का बाह्य जीवन से समन्वय स्थापित करना है। “,

पेस्टालॉजी के अनुसार, “मानव की समस्त स्वाभाविक क्तयों का पूर्ण प्रगतिशील विकास ही शिक्षा है । “

रूमो के अनुसार, “सच्ची शिक्षा वह है, जो व्यक्ति के अन्दर से प्रस्फुटित होती है। यह इसकी अन्तर्निहित शक्तियों की अभिव्यक्ति है ।”

उपरोक्त परिभाषाओं के अवलोकन से स्पष्ट है कि शिक्षा के तीन भाग हैं – शिक्षक, छात्र और समाज। इन तीनों भागों में समानता है। यह भी स्पष्ट है कि कोई भी चेतन पदार्थ निष्क्रिय नहीं हो सकता। इस प्रकार शिक्षा को एक गतिशील प्रक्रिया के रूप में माना जाता है। इस प्रकार शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसमें बालक अपने व्यक्तित्व का विकास करता है तथा जीवन भर के अनुभवों को प्राप्त कर जीवन की विभिन्न समस्याओं का समाधान कर शिक्षा का संपादन एवं संचालन औपचारिक अथवा अनौपचारिक दोनों प्रकार से करता है। सहायक शिक्षा भी एक महत्वपूर्ण विधि है, जिसे हम किसी व्यक्ति विशेष के संपर्क में अनौपचारिक स्थितियों में प्राप्त करते हैं। शिक्षा जीवन में निर्धारित लक्ष्यों और आदर्शों को व्यावहारिक रूप देने का कार्य करती है। शिक्षा के माध्यम से ही व्यक्ति के ज्ञान और कौशल का विकास होता है। ज्ञान और कौशल नए दर्शन का निर्माण करते हैं और नया दर्शन नई शिक्षा को जन्म देकर इस चक्र को गतिशील रखता है।

https://www.youtube.com/watch?v=5bVym5wUaTc

दर्शन का वह भाग जिसमें शिक्षा की समस्याओं का अध्ययन किया जाता है और उन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया जाता है, शिक्षा दर्शन कहलाता है।

इसी प्रकार शिक्षा दर्शन दर्शन की वह शाखा है, जिसमें शिक्षा, पाठ्यचर्या, शिक्षाशास्त्र और शिक्षा से संबंधित अन्य समस्याओं की अवधारणा के संदर्भ में विभिन्न दार्शनिकों और दार्शनिक संप्रदायों के विचारों का समालोचनात्मक अध्ययन किया जाता है। इसलिए, शिक्षा का दर्शन ऐसे प्रश्नों से संबंधित है, जैसे शिक्षक क्या है? शिक्षा का उद्देश्य क्या है? शिक्षा कैसे देनी चाहिए? शिक्षा दर्शन कई समस्याओं पर गहराई से विचार करता है और उनका समाधान भी करता है। शिक्षा दर्शन की आधुनिक अवधारणा के अंतर्गत आलोचनात्मक विश्लेषण पर विशेष बल दिया जाता है। इस प्रकार के दर्शन को विश्लेषणात्मक दर्शन कहा जाता है। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि दर्शन की आधुनिक अवधारणा में वैज्ञानिक पद्धति और तार्किक पद्धति दोनों का एक संयोजन है, ताकि बुनियादी विचारों या अवधारणाओं को समझाया और समझाया जा सके। इस अवधारणा में शिक्षा की विभिन्न समस्याओं में संबंधित विवादों और भ्रांतियों का आलोचनात्मक विश्लेषण स्वाभाविक रूप से शिक्षा दर्शन के माध्यम से किया जाता है। इसलिए, आधुनिक दर्शन की अवधारणा के तीन कार्य हैं – जांच, दृढ़ संकल्प और समीक्षा, यानी दर्शन जांच करता है, माता, पिता, शिक्षक और समाज को जानने का काम करता है और महत्वपूर्ण विश्लेषण पर विशेष जोर देता है। तो यह स्पष्ट है कि एक शिक्षक को शिक्षा के दर्शन को अवश्य पढ़ना चाहिए।