कारगिल संघर्ष के सही सबक The perfect lesson for Kargil conflict

कारगिल संघर्ष के सही सबक The perfect lesson for Kargil conflict

कारगिल संघर्ष के सही सबक The perfect lesson for Kargil conflict :- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई में देश कारगिल में शहीद हुए सैनिकों का पुण्य स्मरण करने जा रहा है । इस अवसर पर देश उन सभी सैनिकों को भी याद करेगा जिन्होंने आजादी के बाद से ही तिरंगे की आन-बान-शानके लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए । 26 जुलाई की तारीख का खास महत्व है । कारगिल में इसी दिन भारत को निर्णायक जीत हासिल हुई थी जब हिमालय की दुर्गम पहाड़ियों से पाकिस्तानी घुसपैठियों को पूरी तरह खदेड़ दिया गया था । मोदी सरकार की इस बात के लिए सराहना की जानी चाहिए कि उसने देश को एक नेशनल वार मेमोरियल यानी राष्ट्रीय युद्ध स्मारक की सौगात दी है । यह काफी समय से लंबित था । नई दिल्ली में इंडिया गेट के पास बने इस स्मारक में 16 दीवारों पर 35,942 सैनिकों के नाम उत्कीर्ण किए गए हैं । यह बीते 72 वर्षो में देश के लिए भारतीय फौजियों के मानवीय बलिदान को श्रद्धांजलि है । इनमें कारगिल के वीर शहीदों के नाम भी शामिल हैं जो भारतीय सैनिकों के अदम्य शौर्य एवं साहस के प्रतीक हैं ।

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शहीदों की स्मृति में तीन दिवसीय राष्ट्रव्यापी अभियान के लिए की गई पहल सर्वथा उचित है । प्रधानमंत्री मोदी ने अपने चुनाव अभियान में भी जिस प्रकार राष्ट्रीय सुरक्षा पर जोर दिया उससे भी इस पहलू के राजनीतिक निहितार्थ प्रत्यक्ष होते हैं । प्रधानमंत्री मोदी को इस बात के लिए पूरा श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में ही युद्ध स्मारक का निर्माण सुनिश्चित किया । इसी वर्ष 25 फरवरी को इसका औपचारिक उद्घाटन हुआ था । यहां मोदी इसलिए भी सराहना के पात्र हैं, क्योंकि स्वतंत्र भारत में ऐसे युद्ध स्मारक की मांग तबसे हो रही थी जब सत्ता के शीर्ष पर नेहरू विराजमान थे । इंडिया गेट जैसा प्रभावशाली स्मारक ब्रिटिश राज में शहीद होने वाले उन जवानों की स्मृति में बना था जिन्होंने औपनिवेशिक शक्तियों के लिए लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी । सैनिकों की बहादुरी और पराक्रम की अपनी सर्वव्यापी स्वीकार्यता है, लेकिन इसके राजनीतिक आवरण को अनदेखा नहीं किया जा सकता। स्वतंत्र भारत के लिए अपने युद्ध स्मारक की आवश्यकता स्पष्ट थी, लेकिन भारतीय परिदृश्य में शुरुआती दशकों की प्राथमिकताएं अलग थीं । नेहरू के दौर में राजनीतिक नेतृत्व और सैन्य कमांडरों के बीच अपेक्षाकृत नाजुक संबंधों का भी इसमें योगदान था । 1962 में चीन के साथ युद्ध और कृष्णा मेननप्रकरण ने भारत का मनोबल तोड़ दिया था । इसका परिणाम यह निकला कि भारत को अपना पहला युद्ध स्मारक हासिल करने के लिए 55 वर्षो तक प्रतीक्षा करनी पड़ी ।

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कारगिल शहीदों का स्मरण जहां भावनात्मक रूप से मर्मस्पर्शी है, लेकिन इसका एक व्यापक संस्थागत औचित्य भी है जिस पर ध्यान दिए जाने की दरकार है । कारगिल संघर्ष वास्तव में भारत के प्रतिरक्षा प्रबंधन में अक्षमता का परिणाम था । तब यही माना गया कि भारत इससे ‘अवाक’ रह गया था और एक आक्षेप यह लगा कि ‘चौकीदार’ लापरवाह था या फिर गायब ।

इससे पहले 1962 में जब चीनी सेना ने भारत का मानमर्दन किया और फिर नवंबर 2008 में पाकिस्तान प्रायोजित निर्मम आतंकियों के जत्थे ने मुंबई में ¨हसा का जैसा क्रूर चेहरा पेश किया तो दोनों ही मामलों में एक जैसी बातें की गईं । उनका सार यही था कि दुश्मन भारत को ऐसे वक्त में चौंकाने में सक्षम हुआ जब देश की खुफिया सूचनाएं जुटाने और उनके आकलन की क्षमता स्तरीय नहीं थी । कारगिल संघर्ष के बाद वाजपेयी सरकार ने के. सुब्रमण्यम के नेतृत्व में एक समिति गठित की थी । वह मौजूदा विदेश मंत्री एस जयशंकर के पिता थे जिन्हें भारतीय सामरिक नियोजन का पितामह कहा जाता है । सुब्रमण्यम समिति के गठन का उद्देश्य उन कारणों की पड़ताल करना था जिनके चलते कारगिल में युद्ध जैसी स्थिति बनी । इस समिति को यह जिम्मा भी सौंपा गया कि भविष्य में ऐसे सैन्य टकराव टालने के लिए क्या रणनीति बनाई जा सकती है ? इसमें चार विशेष श्रेणियां चिन्हित की गईं और तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में मंत्रियों के समूह का गठन किया गया । उनमें खुफिया विभाग एक प्रमुख मसला था । दुर्भाग्यवश अमेरिका में 9/11 हमला और संसद पर आतंकी हमले के चलते जरूरी सुधार ठंडे बस्ते में चले गए और मनमोहन सिंह सरकार की प्राथमिकताएं कुछ अलग थीं ।

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यह एक हकीकत है कि बीते 20 वर्षो के दौरान संसद में कारगिल संघर्ष के बाद जरूरी समझे जाने वाले सुधारों पर कोई गंभीर चर्चा नहीं हुई और हालिया चर्चा में भी खुफिया सुधारों की जरूरत पर ही बात हुई । भारत को खुफिया ब्यूरो यानी आइबी औपनिवेशिक परंपरा से विरासत के रूप में मिली और 1966तक यही देश की इकलौती प्रमुख खुफिया एजेंसी बनी रही । 1966में बाहरी खुफिया जरूरतों के लिए रिसर्च एंड एनालिसिस विंग यानी रॉ की स्थापना की गई । आरएन काउ भारत की खुफिया इकाई के सबसे मशहूर जासूस मुखिया माने जाते हैं । उनका प्रभाव इतना था कि उनके शुरुआती शागिर्दो को ‘काउ-बॉयज’ तक कहा गया । बी रमन भी उनमें से एक थे जिनके साथ मेरा लंबा पेशेवर जुड़ाव रहा । रमन देश के सबसे काबिल खुफिया अधिकारियों में से एक थे और खुफिया तंत्र की कमियों से भलीभांति परिचित भी ।

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बीते कई दशकों के दौरान राजनीतिक नेतृत्व ने खुफिया तबके की पेशेवर क्षमताओं को कुंद किया है । इसमें आइबी का काम मुख्य रूप से घरेलू राजनीतिक गतिविधियों पर नजर रखने तक सीमित हो गया है । पेशेवर प्रतिबद्धता के अभाव और कमजोर नेतृत्व के चलते आइबी और रॉ क्षेत्रधिकार को लेकर कड़वाहट भरे संघर्ष में उलझकर रह गई हैं । ऐसी उम्मीद थी कि कारगिल समीक्षा समिति की सिफारिशों से बेहद जरूरी खुफिया सुधारों की राह खुलेगी, लेकिन बीते 20 वर्षो में ऐसा हो नहीं पाया । खुफिया सुधारों के आलोक में रमन की यह टिप्पणी खासी उल्लेखनीय है कि ‘किसी संकट के आधार पर समीक्षा में अतीत की ही पड़ताल होती है कि आखिर क्या गलत हुआ और उसे कैसे रोका जा सकता था ? वहीं आवश्यकता के आधार पर होने वाली समीक्षा भविष्योन्मुखी होती है । इसमें भविष्य की जरूरतों के लिहाज से आवश्यक कदम उठाए जाते हैं ।’

अफसोस कि कारगिल के दो दशक बाद भी भारत के नाजुक खुफिया ढांचे को दुरुस्त करने को कोई ठोस कवायद नहीं हुई है । हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि कारगिल की स्मृति में कार्यक्रमों की समाप्ति के बाद मोदी-शाह-डोभालकी तिकड़ी इस मोर्चे को प्राथमिकता के आधार पर साधेगी । रमन इससे खासे कुपित रहते थे कि हमारे नीति निर्माता खुफिया क्षमताओं में सुधार के बजाय उन्हें और बिगाड़ रहे हैं । अब इस पर विराम लगाकर वास्तविक सुधारों की शुरुआत होनी चाहिए ।

https://www.youtube.com/watch?v=4rmnPvE6piw

(लेखक सामरिक मामलों के विश्लेषक एवं सोसायटी फॉर पालिसी स्टडीज के निदेशक हैं)

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ऐसी उम्मीद थी कि कारगिल समीक्षा समिति की सिफारिशों से बेहद जरूरी खुफिया सुधारों की राह खुलेगी, लेकिन बीते 20 वर्षो में ऐसा हो नहीं पाया है