विषयों के उदय के सामाजिक, राजनीतिक एवं बौद्धिक परिप्रेक्ष्य की विवेचना करें ।

सामाजिक, राजनीतिक एवं बौद्धिक परिप्रेक्ष्य :- विद्यालय में शिक्षा के अन्तिम लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए पाठ्यचर्याीं का निर्माण किया जाता है। अर्थात् पाठ्यक्रम शिक्षा के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपना सहयोग प्रदान करते हैं। पाठ्यचर्या के द्वारा प्रत्येक विद्यार्थी अपना सर्वांगीण विकास करने में समर्थ हो पाता है। पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जिसमें बालकों की रुचियों तथा स्वयं के विकास के अधिक-सेअधिक अवसर प्राप्त हो सके। पाठ्यचर्या विद्यालय की प्रत्येक क्रिया के लक्ष्य की प्राप्ति में योगदान होता है। पाठ्यक्रम में पाठ्य विषयों के साथ-साथ विद्यालय के सारे कार्यक्रम सम्मिलित किये जाते हैं। पाठ्यक्रम के विषयों का उदय विशेष रूप से सामाजिक, राजनीतिक तथा बौद्धिक परिप्रेक्ष्य में किया जाता है।

सामाजिक, राजनीतिक तथा बौद्धिक परिप्रेक्ष्य

सामाजिक परिपेक्ष्य

सामाजिक परिपेक्ष्य – पाठ्यक्रमों छात्रों की आवश्यकताओं, रुचियों तथा योग्यताओं को सामाजिक विकास तथा सामाजिक कल्याण के लिए ढालना चाहिए । पाठ्यक्रम में समाज के लिए उपयोगी तथा उत्पादक क्रियाएँ को सम्मिलित करना चाहिए। पाठ्यक्रम समाज की आकांक्षाओं के अनुसार होना चाहिए ताकि प्रत्येक व्यक्ति में समाजिकता तथा नागरिकता के गुण उत्पन्न किये जा सकें तथा विद्यार्थियों में Civic Sense की वृद्धि की जा सकें । अतः पाठ्यक्रम में वे अधिगम अनुभव सम्मिलित किये जाने चाहिए जो जीवन शैलियों पर आधारित हों तथा समाज के लिए महत्त्वपूर्ण हों । इस दृष्टिकोण से पाठ्यक्रम में भाषा, गणित, स्वास्थ्य, शिक्षा, शारीरिक शिक्षा, सामाजिक अध्ययन, सामान्य विज्ञान, प्रयोगात्मक कलाएँ, संगीत इत्यादि विषय में होने चाहिए जो व्यक्ति तथा समाज के विकास में सहायक हैं। पाठ्यक्रम परिवर्तनशील तथा प्रगतिशील होना चाहिए । पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय व्यक्ति एवं समाज की आवश्यकताओं का ध्यान रखना चाहिए ।

भारतीय परिस्थितियों के संदर्भ में एक भली-भाँति विकसित पाठ्यक्रम को हमारे राष्ट्रीय लक्ष्यों – लोकतंत्र, समाजवाद, धर्म-निरपेक्षता, राष्ट्रीय एकता, उत्पादकता एवं आधुनिकीकरण की प्राप्ति के लिए सभी आवश्यक सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक परिवर्तन लाने की दशा में एक सशक्त साधन तथा माध्यम के रूप में कार्य करना चाहिए ।

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राजनीतिक परिप्रेक्ष्य

राजनीतिक परिप्रेक्ष्य – विभिन्न राष्ट्रीय विचारधाराओं का शिक्षा व पाठ्यक्रम पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए राजतंत्र या एकतंत्रीय शासन व्यवस्था में सभी शक्तियाँ एक ही व्यक्ति में निहित होती है। राजतंत्रीय शासन व्यवस्था में शासक वर्ग के लिए उत्तम शिक्षा का प्रबन्ध किया जाता है, जबकि जनसाधारण की शिक्षा हेतु निर्मित पाठ्यक्रम के द्वारा कर्त्तव्यपरायणता आज्ञा पालन व अनुशासन की भावना का विकास करने पर बल दिया जाता है। फॉसिस्ट समाज में राज्य के हित तो सर्वोपरि माना जाता है तथा इसी के अनुसार पाठ्यचया का विकास किया जाता है। जनसाधारण का पाठ्यक्रम राष्ट्रीय भावना एवं सैनिक शिक्षा प्राप्त करने तक सीमित था। साम्यवादी समाज में पाठ्यक्रम में समाजवादी विचारों तथा श्रमिक दर्शन को महत्त्व दिया जाता है। पाठ्यक्रम विकास द्वारा श्रम का महत्त्व मार्क्सवादी दर्शन का अध्ययन तथा राजनीतिक दल की नीतियों का ज्ञान विद्यार्थियों को कराया जाता है। प्रजातंत्रीय व्यवस्था में व्यक्ति की स्वतंत्रता व गरिमा को महत्त्व दिया जाता है। पाठ्यक्रम विकास द्वारा सुनागरिकता के गुण जीविकोपार्जन की क्षमता का विकास, आत्मानुशासन व्यक्तित्त्व का विकास आदि करने का प्रयास किया जाता है।

भारतीय सामाजिक व्यवस्था लोकतांत्रिक है और शिक्षा के ऊपर प्रभाव डालती है। विगत दशकों में लोकतांत्रिक भावना के साथ-साथ शैक्षाणिक विचारों में पर्याप्त विकास हुआ है। लोकतंत्र के लिए ऐसी वास्तविक शिक्षा होनी चाहिए जो शिक्षार्थियों को ज्ञान प्राप्ति की सत्य एवं धारणाओं में अन्तर करने की निष्कर्षों तक पहुँचने उन वस्तुओं को पहचानने की जो सामाजिक परिवर्तन और संकटों के समय काम आती है, में सहायता प्रदान करें।

President of the United States

भारतीय संविधान पूर्णरूपेण लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर आधारित है। स्वतंत्रता, न्याय समानता, बन्धुत्व इसके प्रमुख अंग है । लोकतांत्रिक सिद्धांत भी शिक्षा के सभी अंग पर अपना पूर्ण प्रभाव रखते हैं। पाठ्यक्रम निर्माण एवं विकास के दौरान लोकतंत्रीय सिद्धांतों का पूर्णतया अनुसरण किया जाता है तथा इसके अनुसार पाठ्यचर्या में ऐसे विषयों को ही स्थान दिया जाता है, जो लोकतंत्रीय आदर्शों के अनुकूल हों ।

बौद्धिक विकास प्रत्यय व पाठ्यक्रम

बौद्धिक विकास प्रत्यय व पाठ्यक्रम – बौद्धिक विकास का संबंध मुख्यतः संज्ञानात्मक विकास से होता है । अतः बौद्धिक अथवा संज्ञानात्मक स्तर पर पाठ्यक्रम में निम्नलिखित बातों को शामिल किया जाता है

संज्ञान से तात्पर्य बालक अथवा व्यक्ति के किसी संवेदी सूचनाओं को ग्रहण करके उसका रूपान्तरण विस्तारण पुनः प्रस्तुतीकरण, संग्रहण तथा उसका समुचित प्रयोग करने से होता है एवं संज्ञानात्मक विकास से तात्पर्य है संवेदी सुचनाओं को ग्रहण करना उनपर चिंतन करना तथा क्रमिक रूप से उनमें काँट-छाँटकर इस लायक बना देना कि उनका प्रयोग विभिन्न परिस्थितियों में आने वाली समस्याओं का समाधान करने के लिए किया जा सकें। स्पष्टतः संज्ञानात्मक विकास का संबंध बालकों के बौद्धिक विकास से है । इस विकास की प्रक्रिया में संवेदन, प्रत्यक्षीकरण, प्रतिभा, धारण, चिंतन, तर्कणा, प्रत्यास्मरण, समस्या समाधान आदि मानसिक प्रक्रियाएँ सम्मिलित विकास के अध्ययन के क्षेत्र में जीन पियाजे तथा बूनर के सिद्धांत अधिक महत्त्वपूर्ण है । उन्होंने बालकों का चिंतन एवं तर्कण के विकास के जैविक तथा सरंचनात्मक तत्त्वों पर प्रकाश डाल कर संज्ञानात्मक विकास की व्याख्या प्रस्तुत की है ।

इन सिद्धांतों के ज्ञान से शिक्षक बालकों के बौद्धिक विकास की प्रक्रिया को ठीक ढंग से समझकर उन्हें यथोचित मार्गदर्शन दे सकते हैं ।