विकास की अवधारणा

विकास की अवधारणा

विकास की अवधारणा की समझ शिक्षकों को होनी चाहिए। विकास एक जीवनपर्यत्न चलने वाली प्रक्रिया है, जो गर्भधारण से लेकर मृत्युपर्यत्न होती रहती है।

  • विकास जीवनपर्यन्त चलने वाली एक निरन्तर प्रक्रिया है।
  • विकास की प्रक्रिया में बालक का शारीरिक, क्रियात्मक, संज्ञानात्मक, भाषागत्, संवेगात्मक, एवं सामाजिक विकास होता है।
  • विकास गुणात्मक एवं परिमाणात्मक या मात्रात्मक होता है।
  • विकास आन्तरिक एवं बाह्य कारणों से व्यक्ति में परिवर्तन है।
  • विकास सामान्य से विशिष्ट या सरल से जटिल या एकीकृत से क्रियात्मक की ओर अग्रसर होता है।
  • विकास की अवधारणा के अन्तर्गत बालकों का मानसिक, संवेगिक भाषायी एवं सामाजिक विकास होता है।
  • विकासात्मक परिवर्तन प्राय: व्यवस्थित प्रगतिशील और नियमित होते है।
  • विकास बहु-आयामी होता है।
  • विकास बहुत ही लचीला होता है।
  • किशोरावस्था के दौरान के साथ-साथ संवेगात्मक, सामाजिक और संज्ञानात्मक क्रियात्मकता में भी तेजी से परिवर्तन दिखाई देते है।
  • विकास प्रासंगिक हो सकता है।
  • विकास ऐतिहासिक, परिवेशीय और सामाजिक-सांस्कृतिक घटकों से प्रभावित हो सकता है।
  • बालको में शारीरिक विकास बाह्य और आन्तरिक दोनों होते है।
  • बाह्य शारीरिक विकास ऊँचाई वृद्धि, मोटा, पतला आदि।
  • आन्तरिक शारीरिक विकास नैतिक मूल्यों को समझाना, सोचने-समझने के शक्ति आदि।
  • शारीरिक विकास पर बालको के अनुवांशिक गुणों का भी प्रभाव पड़ता है।
  • बालक के वृद्धि और विकास के बारे में शिक्षक को उनकी रुचियों, इच्छाएँ और दृष्टिकोण ध्यान में रखना चाहिए।
  • विकास तेजी से होता है, जबकि बाल्यावस्था में विकास धीमी गति से होता है।
  • विचार करना, कल्पना करना, तर्क करना, समस्या-समाधान करना, निरिक्षण करना, अवलोकन करना निर्णय करना इत्यादि की योग्यता मानसिक या संज्ञानात्मक विकास का फलस्वरूप विकसित हो सकता है।
  • संज्ञानात्मक या मानसिक विकास से तात्पर्य बालक की उन सभी मानसिक योग्यताओं एवं क्षमताओं से है।
  • पियाजे के अनुसार संज्ञानात्मक विकास के चार अवस्थाएँ है- (1) संवेदनात्मक गामक अवस्था (2) पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (3) मूर्त-संक्रियात्मक अवस्था (4) औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था
  • संवेदनात्मक गामक अवस्था या इन्द्रीयजनित गामक (जन्म से 2 वर्ष तक)
  • पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (2 से 7 वर्ष तक)
  • पियाजे ने पूर्व संक्रियात्मक अवस्था को दो भागों में बाँटा है-(1) पूर्व वैचारिक अवस्था (2 से 4 वर्ष तक) (2) अन्तदर्शी अवस्था (4 से 7 वर्ष तक)
  • मूर्त-संक्रियात्मक अवस्था (7 से 11 वर्ष तक)
  • औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (11 से 15 वर्ष तक)

अधिगम अशक्तता Learning Disability

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