प्रकृति का रोष

प्रकृति का रोष

सृष्टि की रचना प्रकृति के आश्रय से माया द्वारा प्रभु की इच्छा से संपन्न हुई। प्रभु ने कर्म का कठोर विधान बनाया। अनगिनत साधन उपलब्ध कराए। भगवान ने कर्म की कसौटी पर अच्छा-बुरा समझने की बुद्धि प्रदान की। इन सबके साथ उसने मानव की रचना की, जिसे अपनी सभी शक्तियों से सुसज्जित किया। इसे ज्ञान की पात्रता भी मिली। लोक और परलोक को ईश्वरीय नियमों से बांध दिया गया। यही नहीं, पृथ्वी पर मानव की भूमिका भी तय की गई, पर मानव ने शक्तियों का सदुपयोग कम, दुरुपयोग अधिक किया। बुद्धि को अच्छाई में कम, बुराई में अधिक प्रयुक्त किया। ज्ञान को विज्ञान की ओर प्रवृत्त किया। सद्कर्म के स्थान पर दुष्कर्म का वरण किया। प्रकृति के विपरीत अपनी शक्ति को संधानित किया। विवेक त्याग कर अहंकार के वशीभूत मौलिक तत्वों पर इतना कुठाराघात किया कि आज प्रकृति का कोपभाजन सभी प्रणियों को भोगना पड़ रहा है।

मानव अपनी प्रतिभा की परख कर सफल हो सकता है

प्रकृति का रोष तभी शांत होगा, जब मानव अपने कर्म-रथ को उद्देश्यपूर्ण पथ पर खड़ा करे और ईश्वरीय नियमों का पालन करते हुए जीवन के लक्ष्य का संधान करे। कर्म-अकर्म की साधना में नैसर्गिक संतुलन को हर क्षण संभालना चाहिए, अन्यथा विपरीत परिणाम का दंश अनिवार्य है। जैविक प्रवंचना ने तत्वों के रासायनिक विघटन को महासंकट का परिणाम पृथ्वी पर प्रकट किया है। इसलिए सावधानी के साथ जीव धर्म या जीवन पद्धति को पुन: अपनाने का समय शेष है। प्रभु की सृजनात्मक शक्तियों को विध्वंसात्मक कार्य में लगाने से प्रकृति का कोप एक बड़े अनर्थ की ओर ले जा रहा है, इसे रोकने का पुरुषार्थ अवश्य किया जाय। संहार नहीं, संभार की ओर चला जाय।

सकारात्मकता की शक्ति

प्रकृति ही जीवन का पोषण करती है, उसकी मर्यादा को ठीक उसी तरह सहेजना चाहिए, जिस प्रकार जननी की मर्यादा को सुरक्षित किया जाता है।