पितृसत्ता से आप क्या समझते हैं?

पितृसत्तात्मक- समाजशास्त्र के विद्वानों ने पितृसता को प्राचीन काल से चली आ रही एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में स्वीकार किया है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत पिता या कोई अन्य पुरुष एक परिवार में शामिल समस्त सदस्यों की परिवार की सम्पति व परिवार के अन्य साधनों पर अपना सम्पूर्ण स्वामित्व रखता है। परिवार की सभी वस्तुओं पर पूर्ण स्वामित्व रखने वाले इस पुरुष को ही ‘परिवार का मुखिया’ कहा जाता था, या ‘परिवार के मुखिया’ के नाम से संबोधित किया जाता था। प्रत्येक वंश का नाम पुरुषों के नाम से ही चलता है। इस प्रकार समाज के उद्भव काल से ही पितृसता या पुरुष प्रधान समाज का प्रचलन रहा है और प्रत्येक समाज में स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों को प्रमुखता प्राप्त होती रही है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अन्तर्गत प्रारम्भ से ही यह मान्यता रही है कि प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत महिलाओं को पुरुषों की प्रत्येक आज्ञा का पालन करना चाहिए और पूर्णरूप से उसके अधीन रहना चाहिए ।

प्रत्येक समाज में पारिवारिक व्यवस्था के अन्तर्गत परिवार में निवास करने वाली महिलाओं को भी पुरुष की सम्पति के रूप में स्वीकार किया जाता है। महिलाओं के सम्बन्ध में अनेक ऐसे निर्णय सदैव पुरुषों द्वारा ही लिये जाते रहे हैं, जिन पर निर्णय लेने का अधिकार नैतिक रूप से महिलाओं को ही प्राप्त होना चाहिए था । जैसे— पुत्री का विवाह किसके साथ किया जाए, यह निर्णय लेने का अधिकार प्रारम्भ से लेकर आज तक सामान्य परिवारों में पिता या पिता की अनुपस्थिति में बड़े भाई या परिवार के किसी पुरुष सदस्य, ताऊ, चाचा आदि के पास सुरक्षित है। बदलते हुए समाज के साथ इस स्थिति में परिवर्तन आया है। किन्तु 60 प्रतिशत परिवारों में आज भी वही स्थिति विद्यमान है। इस प्रश्न जैसे और भी अनेक सामाजिक प्रश्न है जिनके समाधान का अधिकार सिर्फ परिवार के पुरुषों या बुर्जुगों के पास सुरक्षित है। ऐसे निर्णय में महिलाओं का योगदान प्राय: बहुत कम ही रहता है। विश्व के सभी क्षेत्रों और धर्मों में पितृसत्तात्मक व्यवस्था आज भी लागू है और महिलाओं के सम्बन्ध में लगभग समान दृष्टिकोण है। विश्व में जितने धर्म प्रचलित है, उन सभी धर्मों के अपने-अपने कानूनी प्रावधान है, जैसे हिन्दू कानून, मुस्लिम शरियत, ईसाई कानून आदि। इन सभी धर्मों के कानूनों के अन्तर्गत विवाह सम्बन्धी, तलाक, भरण-पोषण सम्बन्धी और सम्पति सम्बन्धी अधिकारों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। सभी कानूनों में किये गये प्रावधानों के अन्तर्गत पुरुषों व महिलाओं के बीच भेदभाव स्पष्ट दिखाई देता है। प्रत्येक धर्म में परिवार के मामलों में महिलाएँ से संबंध प्रकरणों में शासकीय कानूनों से अधिक सामाजिक व्यवस्था के प्रावधानों को अधिक महत्त्व दिया गया है। यदि हम इन अधिकारों व कर्त्तव्यों का अवलोकन करें तो पाते हैं कि पुरुषों को दिए गए अधिकारों का पक्ष महिलाओं को दिए गए अधिकारों की तुलना में अधिक मजबूत और भारी है। यदि यह कहा जाए कि महिलाएँ के हिस्से में सिर्फ कर्त्तव्य ही आये हैं, अधिकार नहीं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

पितृसत्तात्मक व्यवस्था सहायक या बाधक

पितृसत्तात्मक व्यवस्था सहायक या बाधक – पितृसत्तात्मक व्यवस्था चुनौतीपूर्ण लिंग की अन्तः क्रिया और सामाजिक संगठनों के मध्य पहचान स्थापित करने में बाधक है या नहीं और यदि बाधक नहीं है तो यह सहायक किस प्रकार है? पितृसत्तात्मक व्यवस्था के वर्तमान समाज में हम अनेक दोष देखते हैं और स्त्रियों की दयनीय स्थिति के लिए इसे उत्तरदायी माना जाता है, परन्तु यहाँ पर हम पितृसत्तात्मक व्यवस्था कहाँ तक सामाजिक अन्तःक्रिया और पहचान में सहायक है और कहाँ तक बाधक, दोनों का पृथक्-पृथक् निरूपण करने के पश्चात् ही हम किसी निष्कर्ष पर पहुँचेंगे।

भारतीय संवैधानिक विकास (Constitutional Development of India)

पितृसत्तात्मक व्यवस्था हमारे समाज में आज से नहीं, वरन् प्राचीन काल से ही चली आ रही है। उस समय स्त्रियों की सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा तथा शिक्षा आदि की समान व्यवस्था थी, परन्तु स्त्रियों को पिता या पति की सत्ता प्राप्त नहीं होती थी, उसका हस्तान्तरण तो पुत्र को ही होता था। इतिहास पर यदि दृष्टिपात करें तो आर्य समाज पितृसत्तात्मक था। पैतृक सम्पत्ति में पुत्री को अधिकार प्राप्त नहीं था, फिर भी वह सामाजिक और धार्मिक क्रियाकलापों केन्द्र में थी। स्त्रियों को ऋग्वैदिक काल में राजनीति में भाग लेने का अधिकार नहीं था। उनका उपनयन संस्कार होता था और वे शिक्षा प्राप्त करती थीं। विवाह के समय कन्या जो भी उपहार व द्रव्य प्राप्त होते थे उस पर उसका अधिकार होता था। सातवाहन वंश, जिसका उल्लेख पुराणों में ‘आंध्रजातीय’ या ‘आंध्रभृत्य’ कहकर किया गया है। इस वंश में राजाओं के नाम मातृप्रधान हैं, जैसे गौतमी पुत्र शातकर्णी, वशिष्ठी पुत्र पुलुमणि तथा यज्ञश्री शातकर्णी इत्यादि, परन्तु यह वंश भी पितृतंत्रात्मक था, क्योंकि सत्ता का हस्तान्तरण पिता से पुत्र को ही होता था न कि पुत्री को । महाभारत में पुत्री का सम्पत्ति पर अधिकार का प्रभावी ढंग से निरूपण किया गया है, परन्तु अधिकांश स्मृतियों तथा धर्मशालाओं में स्त्रियों को सम्पत्ति के अधिकार से वंचित ही रखा गया है। स्त्रीधन नामक स्त्री की निजी सम्पत्ति के विषय में वर्णन अवश्य प्राप्त होता है जो विवाह के समय प्राप्त वस्तुएँ, आभूषण आदि होते थे। कात्यायन के अनुसार स्त्री अपनी सम्पत्ति बेच सकती थी। विज्ञानेश्वर गौतम तथा वशिष्ठ धर्मसूत्रों में वर्णन आता है कि माता की स्त्रीधन पुत्री को ही प्राप्त होता था। इस प्रकार प्राचीन काल में अभी तक स्त्रियों को सम्पति के अधिकार से वंचित ही रखा गया है, भले ही इस विषय में सम्पति का अधिकार अधिनियम, 2006 के द्वारा परिवर्तन किया गया है। आज भी अधिकांश स्त्रियाँ पुरुषों के इशारे पर चलने के लिए, उनके निर्णयों को मानने के लिए इसलिए भी विवश होती है कि उनके पास कोई आर्थिक अधिकार नहीं है और प्राचीन काल में स्त्रीधन के द्वारा स्त्री आर्थिक हितों की रक्षा का जो उपाय किया गया था, वह भी वर्तमान में दहेज के विकृत रूप में उपस्थित हो गया है, जिससे स्त्री की समाज में सशक्त भूमिका बनना तो दूर, दहेज के लिए उसका शारीरिक और मानसिक शोषण होना प्रारम्भ हो जाता है।

पितृसत्तात्मक व्यवस्था सामाजिक संगठनों के साथ अन्तःक्रिया और पहचान बनाने में सहायक किस प्रकार है, यह निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत वर्णित है

1.पितृसत्तात्मक व्यवस्था की एक विशेषता है कि इसके द्वारा स्त्रियाँ आर्थिक उत्तरदायित्वों के बोझ से मुक्त होती हैं और स्वतन्त्रता का अनुभव करती हैं।

2. पितृसत्तात्मक के कारण पुत्रों को जल्दी ही आर्थिक जिम्मेदारियों के निर्वहन हेतु तैयार किया जाता है, वहीं स्त्रियाँ इससे अलग होकर सामाजिक क्रियाओं में निर्बाध रूप से भाग लेती हैं।

3. इस व्यवस्था में बालिकाओं के समस्त प्रकार की आवश्यकताओं और उत्तरदायित्वों का निर्वहन पिता, पति, भाई या पुत्र द्वारा किया जाता है, जिससे उन पर अनावश्यक दबाव नहीं होता और आर्थिक सुरक्षा के कारण वे समाज के संगठनों के साथ अन्तः क्रिया स्थापित कर अपनी पहचान बनाने का कार्य सम्पन्न कर सकती है।

4. पितृसतात्त्मक व्यवस्था में बालिकाओं और स्त्रियों को सामाजिक, शारीरिक तथा सबसे बढ़कर मनोवैज्ञानिक सुरक्षा प्रदान की जाती है जो उनके समाजिक विकास तथा अन्तःक्रिया हेतु अत्यावश्यक है।

इस प्रकार पितृसत्तात्मक व्यवस्था सामाजिक पहचान और अन्तः क्रिया की स्थापना में जहाँ सहायक है वहीं यह प्रक्रिया में कुछ अवरोध भी उत्पन्न करती है, जो निम्न प्रकार हैं

https://www.youtube.com/watch?v=nIGOXR0FgcM

1.पितृसत्तात्मक व्यवस्था स्त्रियों केअन्य सामाजिक संगठनों के साथ अन्तः क्रिया की स्थापना में और पृथक पहचान के निर्माण में बाधक है, क्योंकि इसमें पुरुषों की प्रधानता होती है।

2.पुरुषों की प्रधानता के कारण तथा आर्थिक विषयों पर उनका नियन्त्रण होने के कारण स्त्रियाँ अपनी रुचि के अनुसार न तो निर्णय ले पाती हैं और न ही आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाती है।

3.पुरुष सत्तात्मकता में सामाजिक संगठनों द्वारा स्त्रियों को उपेक्षित या कम महत्त्व दिये जाने से उनकी अन्तः क्रिया और पहचान बाधित होती है।

4.वर्षों से चली आ रही पितृसत्तात्मक व्यवस्था के कारण स्त्रियों में हीनता का भाव भर गया है और पुरुषों में श्रेष्ठता का भाव, जिसके कारण उनके प्रति समान व्यवहार नहीं किया जाता है।

5.समाज में आर्थिक हित जिसके पास होते हैं उसी को समर्थ और समक्ष माना जाता है। अतः सामाजिक विकास की प्रक्रिया में स्त्रियाँ हाथ नहीं बँटा ‘पाती हैं, जिसके कारण उन्हें अनुपयोगी माना जाता है और सामाजिक अन्तः क्रिया तथा पहचान स्थापित करने का कार्य प्रभावी रूप से नहीं हो पाता है।

6.स्त्रियों को पितृसत्तात्मक व्यवस्था के कारण पुरुषों के अधीन रहना पड़ता है, जिसके कारण वे सामाजिक अन्तः क्रिया और अपनी पहचान बनाने के लिए पुरुषों की बराबरी नहीं कर पाती है। •

7.स्त्रियों का मनचाहा शोषण होता है। इस तन्त्र के कारण और वे समाज के साथ अन्तः क्रिया स्थापित करने में सक्षम नहीं हो पाती हैं।

8.पितृसत्तात्मकता के कारण पुरुष प्रधान समाज में दहेज लेने की प्रवृति दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, क्योंकि इसको अब स्त्रीधन नहीं समझा जाता, बल्कि पैसा ऐंठने की एक तकनीक समझा जाने लगा है। ऐसे में स्त्रियों सामाजिक संगठनों के साथ अन्तः क्रिया स्थापित करें या घरेलू परिस्थितियों से निपटें।

9.पितृसत्तात्मकता के कारण संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार भी बाधित हो रहे हैं।

10.पितृसत्तात्मक व्यवस्था में भोजन, स्वास्थ्य, पोषण, वस्त्र तथा सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं का संकेन्द्रण पुरुषों की ओर होता है और स्त्रियों को द्वितीयक माना जाता है। ऐसी विभेदक परिस्थिति में समाज के अन्य संगठनों के साथ अन्तः क्रिया और पहचान निर्मित करने की बात करना भी बेमानी लगता है।

11.पितृसत्तात्मक के कारण स्त्रियों की शिक्षा की आवश्यकता ही नहीं समझ जाती, जिसके परिणामस्वरूप निर्विद्यालयीकरण, अपव्यय तथा अवरोधन जैसी समस्यायें उत्पन्न होती हैं। विद्यालय समाज का लघु रूप और प्रभावी सामाजिक संगठन है। इसकी उपेक्षा करने से अन्तः क्रिया और पहचान निर्मित करने की प्रक्रिया बाधित होती है।