महात्मा गाँधी के शैक्षिक दर्शन

महात्मा गाँधी के बुनियादी शिक्षा

महात्मा गाँधी के शैक्षिक दर्शन :-गाँधीजी ने अपने शिक्षा दर्शन में जीवन के सभी पक्षों को ध्यान में रखा है। वैसे उन्होंने शिक्षा पर कोई ग्रन्थ नहीं लिखा, पर समय-समय पर अपने विचारों को सभाओं में तथा ‘हरिजन’ के अनेक लेखों में व्यक्त किए। उनके अनुसार शिक्षा के द्वारा बालक में व्यवहार कुशलता का आना आवश्यक है। व्यवहार कुशलता होने के लिए बालक को हस्तकार्य, अनुभव, प्रयोग, सेवा तथा प्रेम का आश्रय लेना होगा। गाँधीजी के अनुसार, “जो शिक्षा चित्त की शुद्धि न करे, निर्वाह का साधन न बनाए तथा स्वतंत्र रहने का हौसला और सामर्थ्य न उपजाए, उस शिक्षा में चाहे जितनी जानकारी का खजाना, तार्किक कुशलता और भाषा पांडित्य मौजूद हो, वह सच्ची शिक्षा नहीं।”

विषयों के उदय के सामाजिक, राजनीतिक एवं बौद्धिक परिप्रेक्ष्य की विवेचना करें ।

शिक्षा का उद्देश्य :– शिक्षा के द्वारा व्यक्ति में स्वावलम्बन का गुण आना आवश्यक है। जब बालक विद्यालयी शिक्षा समाप्त करे, तो वह अपने पैरों पर खड़ा सके, इसके लिए उसे व्यावसायिक दक्षता प्राप्त करनी होगी। शिक्षा प्राप्त करने पर भी यदि बालक बेकार रहता है तो इसमें शिक्षा का ही दोष है। व्यवसाय में कुशलता प्राप्त करना देश और समाज के लिए तो लाभकर है ही, स्वयं व्यक्ति के लिए भी आवश्यक है। इस दृष्टि से गाँधीजी ने व्यावसायिक उद्देश्य तथा जीविकोपार्जन की शिक्षा का समर्थन किया।

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गाँधीजी ने संस्कृति की ओर भी ध्यान दिया। कस्तूरबा बालिकाश्रम, नयी दिल्ली में 22 अप्रैल सन् 1946 को व्याख्यान देते हुए गाँधीजी ने कहा था, “मैं शिक्षा के साहित्यिक पक्ष की अपेक्षा सांस्कृतिक पक्ष को अधिक महत्व देता हूँ।” संस्कृति प्रारंभिक वस्तु एवं आधार है।

गाँधीजी के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य आध्यात्मिक स्वतंत्रता भी होनी चाहिए। गाँधीजी प्राचीन भारतीय ऋषियों की भाँति यह भी कहते थे कि विद्या सदा मुक्ति के लिए होनी चाहिए । ‘सा विद्या या विमुक्तए’ उनका भी आदर्श था। शिक्षा द्वारा आध्यात्मिक स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिए। आध्यात्मिक स्वतंत्रता की प्राप्ति से ईश्वर का ज्ञान एवं आत्मानुभूति होती है।

शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य चारित्रिक विकास भी है। अपनी आत्मकक्षा में उन्होंने लिखा है, “मैंने चरित्र निर्माण को शिक्षा की उपयुक्त आधारशिला माना है, मैंने हृदय की संस्कृति या चरित्र निर्माण को सदा प्रथम स्थान दिया है।” गाँधीजी के अनुसार शिक्षा का अर्थ, शरीर, मन तथा आत्मा सभी का सर्वोच्च विकास है । वे बालक के सर्वांगीण विकास को शिक्षा का उद्देश्य मानते थे ।

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महात्मा गाँधी के द्वारा पाठ्यक्रम :— गाँधीजी ने ‘क्रिया – प्रधान पाठ्यक्रम’ पर बल दिया। उनके विचार से पाठ्यक्रम ऐसा नहीं होना चाहिए कि उससे केवल बौद्धिक विकास हो । बौद्धिक विकास तो केवल साहित्यिक विषयों से हो सकता है, किन्तु उनसे शारीरिक एवं आध्यात्मिक विकास संभव नहीं है । प्रचलित शिक्षा में शारीरिक एवं आध्यात्मिक विकास की उपेक्षा की गयी है ।

गाँधीजी ने अपने क्रिया प्रधान नवीन पाठ्यक्रम में क्राफ्ट को महत्वपूर्ण स्थान दिया । क्राफ्ट कोई भी हो सकता है। भारतीय समाज की दृष्टि में कृषि, कताई-बुनाई, गत्ते का कार्य, लकड़ी का काम, धातु का काम आदि में से एक क्राफ्ट को चुना जा सकता है । कताई बुनाई की ओर उन्होंने विशेष रुचि प्रदर्शित की।

पाठ्यक्रम में मातृभाषा को प्रमुख स्थान दिया गया। शिक्षा के माध्यम के रूप में भी मातृभाषा को ही स्वीकार किया गया । गणित, सामाजिक अध्ययन, ड्राइंग तथा संगीत भी पाठ्यक्रम में अवश्य होना चाहिए। उनके पाठ्यक्रम में सामान्य विज्ञान को भी रखा गया। सामान्य विज्ञान में जीव विज्ञान, शरीर विज्ञान, रसायनशास्त्र, स्वास्थ्य विज्ञान, प्राकृतिक अध्ययन, भौतिक, सांस्कृतिक तथा नक्षत्र ज्ञान के सामान्य तत्त्व निहित हैं।

गाँधीजी ने अपने इस पाठ्यक्रम को प्राथमिक एवं जूनियर स्तर तक ही सीमित रखा । उनके अनुसार पाँचवीं कक्षा तक बालक एवं बालिकाओं के लिए एक ही प्रकार का पाठ्यक्रम होना चाहिए। इसके बाद बालिकाओं को सामान्य विज्ञान के स्थान पर गृह विज्ञान पढ़ाना चाहिए ।

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शिक्षण विधि— गाँधीजी ऐसी शिक्षण प्रक्रिया को लाना चाहते थे, जिसमें छात्र और शिक्षक के बीच की खाई कम हो। छात्र निष्क्रिय श्रोता के रूप में न होकर सक्रिय अनुसंधानकर्ता, निरीक्षणकर्ता एवं प्रयोगकर्ता के रूप में हों, क्योंकि पारम्परिक प्रचलित विधि में अध्यापक एवं छात्र में कोई सम्पर्क नहीं रहता। अध्यापक व्याख्यान देकर चला जाता है। छात्र निष्क्रिय श्रोता के रूप में बैठे रहते हैं। इस प्रकार की दोषपूर्ण पद्धति के वे विरोधी थे ।

गाँधीजी ने शिक्षण विधियों में शिक्षण का माध्यम मातृभाषा हो इस पर काफी बल दिया। दूसरी तरफ वे यह भी चाहते थे कि शिक्षण पुस्तकीय न होकर ‘क्राफ्ट केन्द्रित’ हो । क्राफ्ट को वे केवल मनोरंजन का साधन न मानकर चरित्र निर्माण का भी साधन मानते थे । क्राफ्ट केन्द्रित शिक्षण पर वे इसलिए बल देते थे कि इसमें क्रिया एवं अनुभव पर बल है। इस प्रकार की शिक्षण पद्धति की आवश्यक प्रविधि है- समन्वय । विभिन्न विषयों की शिक्षा पृथक् विषय के रूप में न होकर समन्वित ज्ञान के रूप में होगी ।

गाँधीजी ने अपने शिक्षण विधियों में ‘श्रम’ को आध्यात्मिक एवं नैतिक महत्व प्रदान किया है। देश की गरीबी दूर करने के लिए श्रम को महत्व देते हुए वे शिक्षा में आमूल परिवर्तन करना चाहते थे ।

शिक्षा की परिभाषा (Definition of education) दीजिए।

बेसिक शिक्षा – विदेशी शासन काल में जो शिक्षा प्रणाली भारतीयों के ऊपर थोपी गई वह सर्वांगीण नहीं थी। इस शिक्षा का उद्देश्य सरकारी मशीन चलाने के लिए बाबू बनाना था । इस प्रणाली से निकला हुआ शिक्षित युवक शरीर से तो भारतीय होता, किन्तु हृदय और मस्तिष्क से विदेशी हो जाता था। महात्मा गाँधी ने सोचा यदि राजनैतिक स्वराज्य मिल भी जाए तो सामाजिक एवं आर्थिक स्वराज्य देश में तब तक नहीं आ सकता, जब तक कि शिक्षा को राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं बनाया जाता । अतः उन्होंने बेसिक शिक्षा का दर्शन देश के समक्ष रखा।

बेसिक शिक्षा – योजना के आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित बनाये गए-

  1. सात वर्ष तक निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा
  2. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा
  3. उद्योग केन्द्रित शिक्षा
  4. स्वावलम्बन

इस शिक्षा को गाँधीजी ‘बुनियादी शिक्षा’ या ‘नई तालीम’ कहते थे । इस शिक्षा को और भी कई नामों से पुकारा जाता है, जैसे-वर्धा योजना, आधारभूत शिक्षा, नेशनल एजुकेशन, मौलिक शिक्षा, बेसिक एजुकेशन आदि । इस शिक्षा पर विचार हेतु वर्धा में शिक्षाशास्त्रियों का एक सम्मेलन हुआ।

बेसिक शिक्षा की योजना को सन् 1938 में उन प्रान्तों में लागू कर दिया गया जहाँ कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों की स्थापना हो गई थी। प्रान्तों की इस दिशा में रुचि देखकर केन्द्र सरकार ने भी इस ओर पग उठाया । केन्द्र सरकार द्वारा गठित केन्द्रीय शिक्षा परामर्शदात्री परिषद् ने इस नयी योजना पर विचार करने के लिए बम्बई के तात्कालीन मुख्यमंत्री श्री बी. डी. खेर की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की । अगले वर्ष श्री बी. डी. खेर की अध्यक्षता में दूसरी समिति नियुक्त हुई। दोनों खेर समितियों ने वर्धा योजना का अध्ययन किया और उसमें सुधार करने के लिए कई सुझाव दिये, जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं

बाल विकास की संकल्पना (Concept of Child Development)

  1. सर्वप्रथमवर्धा शिक्षा योजना ग्रामीण क्षेत्रों में लागू होनी चाहिए ।
  2. बेसिक शिक्षा छः से चौदह वर्ष तक की आयु के बच्चों के लिए अनिवार्य होनी चाहिए ।
  3. ग्यारह वर्ष की आयु पर या पाँचवीं कक्षा के बाद दूसरे प्रकार के विद्यालयों में बालकों को जाने की छूट होनी चाहिए।
  4. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए।
  5. हिन्दी की शिक्षा अनिवार्य और उसकी लिपि अरबी तथा देवनागरी दोनों होनी . चाहिए ।
  6. बाह्य परीक्षा न लेकर, आन्तरिक परीक्षा ही लेनी चाहिए ।

केन्द्रीय शिक्षा परामर्शदात्री परिषद् ने खेर समितियों की सिफारिशों को मान लिया। सन् 1938 में वर्धा में विद्या मन्दिर प्रशिक्षण विद्यालय स्थापित हुआ। इसी वर्ष उड़ीसा, बिहार, उत्तर प्रदेश, कश्मीर, मुम्बई और मध्यप्रदेश में इन प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना हुई तथा बेसिक एजुकेशन बोर्ड का भी निर्माण हुआ। पुराने स्कूलों को बेसिक स्कूलों में परिवर्तित किया गया। सन् 1938-39 में वर्धा में एक ट्रेनिंग कॉलेज खोला गया, जिसमें नार्मल स्कूल के शिक्षकों एवं बेसिक शिक्षा के निरीक्षकों की दीक्षा की व्यवस्था की गई। मध्य प्रदेश, चेन्नई और मुम्बई में तीन प्रशिक्षण केन्द्रों की और स्थापना हुई। देश में चौदह प्रशिक्षण केन्द्र भी खुल गये। लेकिन सन् 1940 के बाद बेसिक शिक्षा की प्रगति कुछ पड़ गई । सन् 1945 में सेवाग्राम में एक राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ, जिसमें विशेषज्ञों का एक समिति बनाई गई। समिति पाठ्यक्रम में सुधार का सुझाव दिया। जनवरी सन् 1947 में दिल्ली में अखिल भारतीय शिक्षा सम्मेलन हुआ, जिसमें शिक्षाशास्त्री मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने अनिवार्य शिक्षा की गति तीव्र करने पर बल दिया। बेसिक शिक्षा के कार्यक्रम को निर्धारित करने के लिए समिति बनाई गई। इस समिति के सिफारिशों को मान लिया गया ।

थोर्नडाइक द्वारा सीखने के नियम

स्वतंत्रता भारत में बेसिक शिक्षा – स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बेसिक शिक्षा का व्यापक प्रसार करने के लिए अनेक प्रयत्न किए गए। नये-नये बेसिक स्कूल खोले गए। बेसिक पद्धति में भी परिवर्तन किया गया। बेसिक शिक्षा का माध्यम माना गया था। अब अन्य उद्योगों को भी शामिल कर दिया गया है। कागज का काम, बागवानी, टोकरी बनाना, कुटीर एवं लघु उद्योग आदि को भी बेसिक शिक्षा के माध्यम के रूप में स्वीकार किया गया। सन् 1948 में ही केन्द्रीय परामर्शदात्री परिषद् ने भारत सरकार को परामर्श देते हुए निम्नलिखित बातों की ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट किया था—

  1. नवीन बेसिक स्कूलों की स्थापना ।
  2. वर्तमान आरंभिक स्कूलों को बेसिक स्कूलों में परिवर्तन करना ।
  3. बेसिक शिक्षकों को प्रशिक्षण की सुविधा प्रदान करना ।
  4. बेसिक स्कूलों के भवनों के लिए सरल व सस्ता ढंग निकालना ।

प्रथम पंचवर्षीय योजना में इस बात पर बल दिया गया कि ग्रामीण क्षेत्रों के अतिरिक्त शहरी क्षेत्रों में भी बेसिक शिक्षा का विकास किया जाय । सन् 1954-55 में ‘बेसिक शिक्षा प्रसार’ नाम से एक नयी योजना प्रारंभ की गयी। इस योजना की मुख्य बातें निम्नलिखित धीं

  1. वर्तमान प्रारंभिक स्कूलों को बेसिक प्रणाली में ढालना ।
  2. नवीन बेसिक स्कूलों की स्थापना ।
  3. नवीन बेसिक प्रशिक्षण संस्थाओं की स्थापना ।
  4. वर्तमान प्रशिक्षण संस्थाओं को बेसिक प्रणाली में ढालना ।
  5. प्रारंभिक स्कूलों में हस्तकला के शिक्षण का प्रारंभ |
  6. हस्तकला के शिक्षकों का प्रशिक्षण |
  7. बेसिक स्कूलों के लिए पाठ्य सामग्री का प्रबन्ध करना ।

सीखना किसी कहते है?

केन्द्रीय शिक्षा परामर्शदात्री परिषद ने बेसिक शिक्षा के निमित्त एक स्थायी समिति का निर्माण किया है, जिसका काम बेसिक शिक्षा के विषय में परिषद् को परामर्श देना है। द्वितीय योजना काल में बेसिक शिक्षा के प्रचार के लिए कई कार्यक्रम अपनाए गए । अनेक जूनियर बेसिक स्कूलों को सीनियर बेसिक स्कूलों में परिवर्तित किया गया । साधारण प्रारंभिक स्कूल तथा मिडिल स्कूल भी बेसिक स्कूलों की प्रणाली में ढाले गए। पब्लिक स्कूल सम्मेलन ने भी बेसिक शिक्षा में रुचि प्रदर्शित की है।

भारत ने बेसिक शिक्षा को राष्ट्रीय शिक्षा का अंग माना है। अनेक पंचवर्षीय योजनाएँ समाप्त हो चुकी है। इन योजनाओं में अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था के लिए बेसिक शिक्षा की प्रणाली ही स्वीकृत की गई है। फिर भी बेसिक शिक्षा में जितनी उन्नति की आशा की गई थी, उतनी उन्नति नहीं हुई ।

तात्कालीन शिक्षा प्रणाली— गाँधीजी ने तात्कालीन शिक्षा प्रणाली से खिन्न होकर ही एक नवीन शिक्षा पद्धति का विकास किया, जिसे हम बेसिक शिक्षा की संज्ञा देते हैं। उन्होंने तात्कालीन शिक्षा प्रणाली के दोषों की ओर दृष्टि डालने पर देखा कि यह भारत के लिए सर्वथा अनुपयुक्त प्रणाली है। बेसिक शिक्षा से पूर्व जो शिक्षा पद्धति चल रही थी, उसके प्रमुख दोष निम्नलिखित थे

प्रयोग क्या है?

  1. जीवन से दूर
  2. संकुचित आदर्श 3. केवल सैद्धान्तिक
  3. सार्वभौमिक शिक्षा का अभाव 5. अपव्यय एवं अवरोधन 6. अनिवार्य शिक्षा का अभाव
  4. निःशुल्क शिक्षा का अभाव
  5. पुनः निरक्षरता
  6. केवल बौद्धिक (एकांगी) विकास
  7. स्वावलम्बन का अभाव
  8. वर्गभेद की जननी
  9. सामाजिकता और नागरिकता का अभाव
  10. अपंग बनाने वाली शिक्षा
  11. सामाजिक शोषण
  12. श्रम से घृणा
  13. गाँव की उपेक्षा
  14. मातृभाषा की उपेक्षा
  15. बालकों के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के प्रतिकूल
  16. स्त्री शिक्षा की उपेक्षा
  17. भारतीय संस्कृति की उपेक्षा

गाँधीवाद — गाँधीवाद शब्द गाँधीजी के समय में भी कुछ लोगों ने प्रयुक्त किया था। कुछ लोग गाँधीवाद शब्द का अब भी प्रयोग करने लगे हैं । सन् 1936 में गाँधीजी ने गाँधीवाद के संबंध में इस प्रकार लिखा है- “गाँधीवाद जैसी कोई वस्तु है ही नहीं और मुझे अपने पीछे कोई सम्प्रदाय नहीं छोड़ जाना है। मैंने कोई नया तत्त्व या नया सिद्धान्त खोज निकाला है, ऐसा मेरा दावा नहीं। मैंने तो मात्र जो शाश्वत सत्य है, उन्हें अपने नित्य के जीवन और प्रश्नों से संबंधित करने का अपने ढंग से प्रयास किया है। मैंने जो रायें निश्चित की हैं और जिन निर्णयों पर मैं पहुँचा हूँ, वे अन्तिम नहीं हैं। आप लोग इसे गाँधीवाद न कहें, इसमें वाद जैसा कुछ भी नहीं है।

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गाँधीजी, गाँधीवाद नाम के समर्थक नहीं रहे। प्रसिद्ध गाँधीवाद विचारक किशोरलाल माशरूवाला ने कहा है कि गाँधीवाद किसी समाज व्यवस्था की प्रणाली का सूचक न होकर एक कार्य-पद्धति का सूचक है। गाँधीजी के विचारों का व्यवस्थित रूप गाँधीजी के कुछ सिद्धान्तों के आधार पर निश्चित किया जा सकता है। गाँधीवाद की प्रमुख विशेषताएँ हैं— सत्य, अहिंसा, सेवा, अस्पृश्यता का अभाव, आध्यात्मिकता देश- सेवा, चारित्रिक दृढ़ता, लक्ष्य निर्धारण, साधन की पवित्रता, देश सेवा का व्रत, ट्रस्टशिप का सिद्धान्त, सत्याग्रह आदि ।